उत्तराखंड में 'नदी बचाओ' पदयात्राएं

उत्तराखंड में बन रहे या प्रस्तावित 220 छोटे-बड़े बांधों के कारण यहां की सदानीरा नदियों का अस्तित्व संकट में है। जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लाखों लोग आंदोलन की राह पर हैं।
नदियों को तेजी से उजाड़ रही जल विद्युत परियोजनाओं के भारी विस्फोटों के कारण मानवकृत भूस्खलन, भू-धंसाव व भूकंप जैसी स्थितियां पैदा हो रही हैं। अचरज इस बात का है कि बांध निर्माण करने वाली सरकार और कम्पनियां जल विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित उत्तरकाशी जिले के गांव भंगेली, सुनगर, तिहार, कुंजन, हुर्री, भुक्की, सालंग, पाला, औंगी, कुमाल्टी, सैंज, भखाड़ी, जामक तथा चमोली जिले में चांई और टिहरी जिले में फलेंडा, चानी, बासी आदि गांवों की सुरक्षा, आजीविका और रोजगार की कोई व्यवस्था करने की बजाय पुलिस दमन के सहारे लोगों की आवाज को दबाने का कार्य कर रही हैं।
उत्तराखंड की नदियां प्राणरेखा हैं, जो सात करोड़ से अधिक लोगों को जीवन देती हैं, ये अब सूखने की कगार पर पहुंच गयी हैं। कोसी, नयार, पनार, गौला, नन्धौर जैसी सदाबहार नदियों ने नालों का रूप ले लिया है। इन्हें पुनर्जीवित करने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। स्थानीय लोग इन नदियों के पुराने स्वरूप को वापस लाने के लिए व्यावहारिक सुझाव दे रहे हैं, आन्दोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकारों के कान पर जूं नहीं रेंग रही है। इसके विपरीत पानी वाली नदियों को आंख मूंद कर निजी कंपनियों के हवाले जल विद्युत परियोजनाओं के लिए किया जा रहा है।
उत्तराखंड में इस समय विभिन्न नदियों पर 60 जल विद्युत परियोजनाओं का निर्माण निजी कंपनियां कर रही हैं। अनुमान है कि इन परियोजनाओं के पूरा होने पर 763 मेगावाट विद्युत का उत्पादन होगा। इस विद्युत उत्पादन से भले ही भारी राजस्व की प्राप्ति होगी, लेकिन इन परियोजनाओं के कारण प्रभावित होने वाले लगभग 10 लाख लोगों के गोचर, पनघट, सिंचाई तथा जल-जंगल-जमीन के अधिकार भी हमेशा के लिए खत्म होने जा रहे हैं। अकेले उत्तरकाशी जनपद में ही 10 छोटी जल-विद्युत परियोजनाएं निजी कंपनियों को सौंपी गयी हैं। इनसे निजी कंपनियां 22.5 मेगावाट विद्युत का उत्पादन करेंगी। उत्तरकाशी जनपद में ही 90 मेगावाट की मनेरी भाली जल विद्युत परियोजना प्रथम चरण के बैराज स्थल मनेरी में पानी रोके जाने से मनेरी से तिलोथ तक गांववालों को पारंपरिक श्मशान घाटों पर अंतिम संस्कार के लिए पानी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। मनेरी भाली के द्वितीय चरण के पूरा होने के बाद यही स्थिति अब उत्तरकाशी से धरासू तक होने जा रही है।
गंगोत्तरी मार्ग पर भी भैरवघाटी, पाला-मनेरी, लोहारीनाग-पाला जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के बाद तो उत्तरकाशी में गंगा कहीं-कहीं पर नजर आयेगी क्योंकि अधिकतर स्थानों पर गंगा इन तीनों विद्युत परियोजनाओं के कारण सुरंगों के अंदर से प्रवाहित होगी। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में जो 220 विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं या बन रही हैं उनकी वजह से यहां की उन नदियों को, जिन पर विद्युत परियोजनाएं निर्माणाधीन या प्रस्तावित हैं, लगभग 700 किमी. लंबी सुरंगों से होकर बहना पड़ेगा। इन परियोजनाओं से 22 लाख लोग सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। जल, जंगल, जमीन का नुकसान कितना होगा, इसका अनुमान अभी नहीं लगाया जा सका है।
गंगा देश व विदेश के करोड़ों लोगों की आस्था और विश्वास का प्रतीक है। गंगा के उद्भव की कहानी भारतीय संस्कृति और सभ्यता की कहानी है। यह भारतीय परम्पराओं और मूल्यों की प्रतीक भी है। गंगा के अविरल बहाव के कारण ही इसकी पवित्रता और निर्मलता की कहानी कही जाती है। यह आध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक सत्य है कि गंगा जल वर्षों तक घर में रखने के बाद भी सड़ता नहीं है। दुनिया में बढ़ते तापमान और पिघलते ग्लेशियरों के कारण गंगा के अस्तित्व पर शोधकर्ता और वैज्ञानिक सवाल उठाने लगे हैं। इसके अलावा भी यदि गंगा के अस्तित्व पर सवाल उठ रहा है तो उसका कारण इस पर बन रही जल विद्युत परियोजनाएं भी हैं, क्योंकि गंगोत्तरी से ही गंगा को सुरंग में कैद करने की योजना आधुनिक योजनाकारों ने बना डाली है। टिहरी से धरासू तक इन दिनों टिहरी बांध का विशालकाय जलाशय ही नजर आ रहा है। एक तरह से लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में गंगा मृतप्राय: हो गयी है। धरासू से गंगोत्तरी की दूरी 125 किलोमीटर तक के इस मार्ग में जो छ: बांध बनने वाले हैं उससे गंगा एक सुरंग बांध से, दूसरे सुरंग बांध से होकर गुजरेगी तो यहां गंगा आधा दर्जन पोखर और तालाबों के रूप में बदल जाएगी। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के सुरेश भाई कहते हैं, ''हमारे योजनाकार, सरकारें विकास का जो मॉडल हिमालयी क्षेत्र में पर्यावरण की कीमत पर थोप रही हैं, उससे देश व जनता को कोई दीर्घकालीक लाभ मिलने वाला नहीं है। विकास के इस मॉडल से पहाड़ की नदीघाटी सभ्यता तो समाप्त होगी ही, सुरंगों के कारण अनेक गांवों का अस्तित्व भी समाप्त होने वाला है। चमोली जिले में सुरंग आधारित विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना से चांईं गांव का विध्वंस तथा उत्तरकाशी जिले में पाला गांव के अस्तित्व का जो संकट खड़ा हुआ है, वे आधुनिक विकास की उस तस्वीर को सामने रखते हैं जो विकास नहीं विनाश ला रही है।''
यमुना नदी पर भी उत्तराखंड में लखवाड़ से यमुनोत्तरी तक छह बांध बनाने की योजना ही इन बांधों के कारण यमुना के दर्शन लोगों को नहीं होंगे, क्योंकि यमुना की जलधारा भी इन बांधों के लिए बनने वाली सुरंगों में कैद हो जाएगी। यमुना नदी के जलग्रहण क्षेत्र में आने वाले बड़कोट, नौगांव, पुरोला विकास खंडों के गांव भूकम्प के अति संवेदनशील क्षेत्र में बसे हुए हैं। यहां सुरंग वाले बांधों के कारण स्थिति और ज्यादा विस्फोटक होने की आशंका है। मनेरी-भाली (प्रथम) परियोजना का दुष्प्रभाव तो सामने भी आ गया है। इस परियोजना के सुरंग के ऊपर जो गांव तथा कृषि भूमि 1991 के भूकम्प में खत्म हो गयी थी, वहां कृषि भूमि की नमी भी अब खत्म हो रही है और गांव के जलस्रोत सूख गए हैं। पर्यावरणीय संकट के कारण उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की चार प्रमुख नदियों टौंस, यमुना, भगीरथी तथा गंगा में लगातार जल स्तर में कमी दर्ज की जा रही है। गत वर्ष इन नदियों में 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। आमतौर पर अप्रैल में अच्छी धूप खिलने के कारण उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में बर्फ पिघलने से जाड़ों में कम हुआ जलस्तर बढ़ने लगता है, लेकिन गत वर्ष ऐसा नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण बांध परियोजनाओं के लिए किए जा रहे अंधाधुंध विस्फोटों को भी माना जा रहा है। जिसकी वजह से इन नदियों के किनारों पर बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गयी हैं।
एक ओर बांध परियोजनाओं ने गंगा के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिए हैं तो दूसरी ओर गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए चलायी जा रही योजनाएं सफेद हाथी साबित हो रही हैं। इस योजना के पहले चरण में 21 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर देने के बाद भी गंगा का प्रदूषण कम नहीं हो रहा है। उत्तराखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार बैक्टीरिया की मात्रा गंगा और उसकी सहायक नदियों में लगातार बढ़ रही है। लक्ष्मण झूला क्षेत्र में कोलीफार्म की मात्रा प्रति मिलीलीटर 1070 पाई गयी तो हरिद्वार में ललतारण पुल के समीप यह मात्रा बढ़कर 5500 प्रति मिलीलीटर हो गयी।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में भी कोसी, नयार, पनार, पश्चिमी रामगंगा, गौला, गगास, गोमती, गरुड़ गंगा, नन्धौर आदि सघन वनों से उद्गमित नदियों के सामने भी संकट खड़ा हो गया है। इनकी जलधाराएं प्रतिवर्ष घटती जा रही हैं। एक शोध से पता चला है कि कौसानी के पास पिनाथ पर्वत से निकलने वाली कोसी नदी का जल प्रवाह अल्मोड़ा के निकट 1994 में 995 लीटर प्रति सेकेण्ड था जो 2003 में घटकर केवल 85 लीटर प्रति सेकेण्ड रह गया है। लगभग यही स्थिति दूसरी नदियों की भी है। उत्तराखंड के सामाजिक व प्राकृतिक हलचलों पर गहरी नजर रखने वाले प्रो. शेखर पाठक कहते हैं, ''कौसानी से रामनगर तक 106 किलोमीटर लम्बी कोसी नदी पर आठ लाख से ज्यादा लोग निर्भर हैं। कोसी के किनारे प्राकृतिक स्रोतों के सूखने, भूकटाव, भूस्खलन, जलप्रदूषण से कोसी की दशा सोचनीय होती जा रही है। आलम यह है कि नदी किनारे बसे लोगों को भी सिर में बर्तन रखकर पानी ढोना पड़ रहा है।'' कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक डा. जेएस रावत के एक अध्ययन के अनुसार, ''कोसी नदी में पानी प्रति वर्ष 50 लीटर प्रति सेकेण्ड की दर से कम हो रहा है। कोसी नदी के लिए जल संवर्धन की कारगर योजना नहीं बनाई गयी तो आने वाले डेढ़ दशक में कोसी पूरी तरह से सूख जाएगी क्योंकि इसकी चार सहायक नदियां पहले ही सूख चुकी हैं।
वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार इन नदियों के संरक्षण व संवर्धन के लिए समय रहते ठोस उपाय नहीं किए गए तो 15-20 वर्ष के बाद इन नदियों का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। वनों को काटने, उनमें आग लगने तथा बांज वृक्षों की उपेक्षा करके चीड़ के पेड़ों को प्राथमिकता देने की हमारी वन नीति का यह दुष्परिणाम है। उत्तराखंड के नगर चाहे नदी तट पर बसे हों, या पर्वतों के ऊंचे ढलानों पर, सभी इन नदियों के जल पर जीवित हैं। सरकारों के दृष्टिकोण के कारण विकसित हुई उपभोग जीवन शैली ने जल का उपयोग व अधिकार भाव तो बढ़ाया है, लेकिन उसके लिएर् कत्तव्य निभाने की कोई जिम्मेदारी उन्हें महसूस नहीं होती। इसी के साथ ही उपभोगवादी इस आधुनिक जीवन के कारण नगरों में मलिन जल की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। बगैर उपचार किए यह मलिन जल नदियों में छोड़कर जल प्रदूषण किया जा रहा है। रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, हल्द्वानी, रामनगर, श्रीनगर, ऋषिकेश, हरिद्वार जैसे नदी किनारे बसे नगरों में यही स्थिति है।
चम्पावत जिले के लोहाघाट क्षेत्र में पिछले तीन दशक के दौरान तेजी से जलस्रोतों के सूखने का दौर शुरू हुआ। इस अवधि में गाड़-गधेरों के जल स्तर में भारी कमी आने से नौला-धारे जैसे परम्परागत स्रोतों के जलस्तर में काफी गिरावट आई है। जल निगम ने गांव-गांव में पीने का पानी पहुंचाने के नाम पर पाइपलाइनें गांवों में पहुंचा दी हैं। दुष्परिणाम यह हुआ कि शताब्दियों से गांव वालों की प्यास बुझाते आ रहे नौलों की ओर से लोगों ने मुंह फेर लिया। सरकारी योजनाओं के कारण नौले-धारों व दूसरे जलस्रोतों में सीमेंट का प्रयोग करने से भी पानी के स्रोत सूख रहे हैं। इसकी वजह से सदानीरा नदियों वाले पहाड़ में दिनोंदिन पेयजल का गंभीर संकट खड़ा होता जा रहा है। लक्ष्मी आश्रम कौसानी की राधा बहन यह कहती हैं, ''कौसी, गोमती तथा गगास नदियों के जलस्रोत 45 किलोमीटर नीचे तक सूख चुके हैं। अधिकतर नदियों का जलस्तर घटने से बहाव का आवेग भी निरंतर घटता जा रहा है।''
नदियों व प्राकृतिक जलस्रोतों के ऊपर निरन्तर बढ़ रहे खतरे को देखते हुए ही उत्तराखंड में लोक जलनीति पर काम करने वाले पर्यावरण चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता 'वर्ष-2008' को 'नदी बचाओ' वर्ष के रूप में मना रहे हैं। जिसके पहले चरण में 1 जनवरी से 15 जनवरी 2008 तक राज्य के 15 नदियों के उद्गम स्थानों से 'नदी बचाओ' पदयात्राएं निकाली गयीं। इनके समापन पर रामनगर में 16 व 17 जनवरी 2008 को दो दिवसीय चिंतन बैठक भी की गयी। बैठक के बाद पारित अनेक प्रस्तावों के माध्यम से जल-जंगल-जमीन के अधिकार जनता को देने की मांग की गयी।

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